Independence day Hindi nibandh | स्वतंत्रता दिन हिंदी निबंध
15 अगस्त, 1947 का दिन भारतीय इतिहास का स्वर्णिम पृष्ठ है, जहाँ से उन्मुक्त भारत का अभिनव अध्याय खुलता है। इसी 15 अगस्त को विदेशी शासन के काले बादल छंटे थे, विदेशियों के अत्याचारों का करकापात बंद हुआ था, उनके शोषण का शोणितस्राव रुका था। उस दिन की उषा बंदिनी नहीं थी, उस दिन की सुहावनी किरणों पर दासता की कोई परछाई नहीं थी।
15 ऑगस्ट पर निबंध |
उस दिन कहीं भी गुलामी की वह दुर्गंध नहीं थी। उस दिन का सिंदूरी सबेरा पक्षियों की चहचहाहट और देशवासियों की खिलखिलाहट से अनुगुंजित हो रहा था। जनजीवन ने मुद्दत के बाद नई अंगड़ाई ली थी। एक नई ताजगी का ज्वार सर्वत्र लहरा रहा था।
स्वतंत्रता यदि स्वर्ग है, तो परतंत्रता साक्षात नरक। परतंत्रता संसार का सबसे घृणित पाप है। सुप्रसिद्ध चिंतक सुकरात ने कभी कहा था कि परतंत्रता अत्याचार और डकैती की अमानुषी प्रणाली है। आर. जी इगरसोल ने कहा था कि नेत्रों के लिए जैसे प्रकाश है, फेफड़ों के लिए जैसे वायु है, हृदय के लिए जैसे प्यार है, उसी प्रकार मनुष्य की आत्मा के लिए स्वतंत्रता है।
इस खोई हुई स्वतंत्रता को प्राप्त करने के लिए हमारे अनगिनत नौजवान फाँसी के तख्ते पर हँसते-हँसते झूल गए, कितनी माताओं ने अपने नौनिहालों को ममता की गोद से उछालकर भाले की नोकों पर टँग जाने के लिए हृदय पर पत्थर रख लिया, कितनी बहनों ने अपने माथे में सिंदूर के बदले राख का टीका लगाना स्वीकार किया। आजादी का इतिहास लिखने में काली स्याही कभी सक्षम नहीं हो पाती, उसे लिखने के लिए खून की धारा बहानी पड़ती है।
वीर भगतसिंह, चंद्रशेखर आजाद, खुदीराम, सुभाषचंद्र बोस जैसे वीरवांकुरों कीशहादत पर, गोखले-तिलक-गाँधी की तपस्या पर, वीर सुभाष और सावरकर के दुतिसाहस पर, जलियाँवाला बाग की रक्तसिंचित भूमि की बयार पर स्वतंत्रता का सूरज गोल किया था और भागे थे सात समुंदर पार । दमका था-इसी 15 अगस्त, 1947 के दिन ।
अंगरेज-शासकों ने अपना बोरिया-विस्तर 15 अगस्त, 1947 को सारे भारतवर्ष में यह स्वतंत्रता-दिवस किस धूमधाम, किस शान-शौकत से मनाया गया था-इसे वे ही जानते हैं, जिन्होंने अपनी आँखों देखा होगा। लगता था, हमारी धरती के भाग्य फिर से जाग उठे हैं। क्या गाँव, क्या नगर, क्या खेत, क्या पहाड़, क्या रेगिस्तान-सर्वत्र आनंद का पारावार लहरा उठा था।
गली-गली में उमंगों के कुंकुम उड़ रहे थे-खुशियों के हिंडोले पर जनमत हिल्लोलित हो रहा था। बहुत दिनों की बीमारी से मुक्त व्यक्ति को जिस प्रकार भोजन अच्छा लगता है, बहुत दिनों तक अँधेरे बंद कमरे में कैद रहने के बाद खुली हवा जितनी मनभावनी लगती है, वही स्थिति उस दिन भारत में बच्चे-बच्चे की थी। हमारे मन-प्राणों मे एक रागिनी बज रही थी .
हमें स्मरण रखना चाहिए कि शताब्दियों की साधना का यह पौधा अक्षयवट तभी बन सकता है, जब हम अपने स्वार्थों के कुत्सित घरे मिटा दें, राष्ट्रप्रेम का दिव्य उत्स हमारे रोम-रोम से फूटे, इसके संरक्षण और संवर्द्धन के लिए हम त्याग और तपस्या के अग्निपथ की यात्रा निरंतर जारी रखें।
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