वर्षा ऋतु पर निबंध | Varsha Ritu Par Nibandh in Hindi


सूर्य की तपिश और गर्मी से व्याकुल समस्त भू-मंडल शांत और शीतल हो जाता है ! महीनो से प्यासी वसुधा वर्षा का प्रथम जल पाकर तृप्त हो उठती है और उसमे सोंधी खुशबू महकने लगती है ! जहा तक द्रष्टि जाए चारो और हरियाली चहक उठती है ! पुराने और पीले पड चुके पत्तो पर नई चेतना आ जाती है ! लताओं में परस्पर आलिंगन बढ़ जाता है ! बाग-बगीचों में फूल खिल- उठते है ! 


सरोवर जल से भर जाता है और सरिताए कल-कल कर बहने लगती है ! ऋतुओ में श्रेष्ठ वर्षा ऋतू की छवि कुछ ऐसी ही होती है ! सम्पूर्ण प्रक्रति जीवंत हो उठती है ! नदिया कई प्रकार की अठखेलिया करती हुई सागर से मिलने को चल पड़ती है ! सम्पूर्ण वातावरण शांत और सुखद हो उठता है और समस्त पेड़-पोधे, लताये, मकान, मार्ग सब के सब के सब नवीन हो जाते है उनमे ताजगी आ जाती है ! सम्पूर्ण जगत में किसी पर्व का सा उल्लास छा जाता है !


बाग-बगीचों में सैर-सपाटे और पिकनिक का समय आ जाता है ! पेड़ो पर झूले टंग जाते है उन पर किशोर-किशोरीया झूलने लगते है ! कोयल मीठी आवाज में कूकने लगती है ! वन और उपवन में मानो यौवन आ जाता है ! पेड़-पोधो की डालिया मस्ती में झूम उठती है ! जामुन आदि व्रक्ष फलों से लद जाते है ! पोखरों में बारिश का पानी भर जाने से मेंढक टर्राकर अपनी प्रसन्नता बता रहे है ! 


उमड़-घुमड़ते बारिश के बादलो को देखकर मोर अपने पंख फैला देते है उनके चंद्वो की सुन्दरता देखते ही बनती है ! मछलिया जल में डूबकी लगा रही है तो बगुले पंख फडफडा रहे है ! रात में आकाश में टिमटिमाते जुगनू ऐसे प्रतीत होते है मानो बादलो से भरे आकाश में दीपावली के दीपक हो ! झींगुरो का समूह समस्त वातावरण को मंद और लयबद्ध आवाज में संगीतमय बना रहा है.


प्रकर्ति की इस अवस्था के बारे में सुमित्रा नंदन पन्त का कवि मन कह उठता है की

–पकड़ वारी की धार झूलता है रे मेरा मन !

एक अन्य कवि कविवर सेनापति ने तो वर्षा ऋतू को नववधु के आगमन की संज्ञा दे डाली !

वर्षा ऋतू में काले बादलो के झुण्ड बनते-बिगड़ते रहते है और कई प्रकार के रूप धारण करते है ! श्यामल-कालिमा ओढ़े अंनत आकाश में रह-रहकर बिजली का चमकना इस द्र्श्य को और भी सुन्दर बनाता है ! कभी –कभी इंद्र-धनुष भी अपने सात रंग दिखाकर सबका मन-मोह लेता है !


छायावाद के प्रसिद्ध कवि जयशंकर प्रसाद इस मनोरम छवि को देखकर प्रकर्ति सोन्दर्य के एक लेख में लिखते है –

“सघन वन में सुन्दर निर्मल जल से आच्छादित नदियों का छिपते हुए बहना प्रकट रूप में वेग सहित मानो ह्रदय की चंचल धारा को भी अपने साथ बहाये लिए जाता है“ 

मंद-मंद चलती शीतल पवन में सावन की फुहारे मन को बहुत सुहाती है !


रात्रि में गिरने वाली हल्की-हल्की बर्फ़ की बुँदे ओस की तरह प्रतीत होती है और सम्पूर्ण वसुधा पर हिम की एक श्वेत चादर सी लपेट देती है ! दूर तक सारा द्रश्य हमें दूध के समुद्र के समान दिखाई देने लगता है ! नेत्रों को ऐसा नयनाभिराम द्र्श्य देखकर अपार आनंद की अनुभूति होती है.


वर्षा का जल अत्यधिक मात्रा में गिरने से स्तिथि अत्यंत कष्टदायी भी बन जाती है और जल प्रलय का द्र्श्य बन जाता है ! कई निचले क्षेत्रो में मकान, सड़क, वाहन, पेड़-पोधे सब जलमग्न हो जाते है ! सैंकड़ो पशु-पक्षी काल का ग्रास बन जाते है ! अपने स्वाभाविक आश्रय स्थल को छोड़कर उन्हें शरण के लिए अन्यत्र स्थानों पर जाना पड़ता है ! 


प्रक्रति के प्रकोप से विवश मानव की स्तिथि बताते हुए प्रक्रति चित्रण के कुशल छायावादी कवि जयशंकर प्रसाद ने कामायनी में लिखा है-

हिमाद्रि के उत्तुंग शिखर पर बैठ शिला की शीतल छाह,

एक पुरुष भीगे नयनो से देख रहा था प्रलय-प्रवाह,

ऊपर हिम था निचे जल था अत्यंत सघन

एक तत्व की ही प्रधानता कहो उसे जड़ या चेतन.

सड़को और झोपड़ियो में अपना जीवन-व्यतीत करने वाले गरीब, असहाय लोगो को भीगे हुए वस्त्रो में ही अपना समय गुजारना पड़ता है ! 


जल का उचित निकास नहीं होने से उनका इंतज़ार और बढ़ जाता है, भोजन-वस्त्र-आवास आदि की परेशानी होने से उनके सामान्य जीवन चक्र में विराम लग जाता है और बैठने, सोने, और आजीविका के कार्य करने में परेशानिया आ जाती है! मच्छर-मक्खी आदि कई प्रकार के कीटो के संक्रमण से गंभीर बिमारियों के फैलने का खतरा भी बढ़ जाता है ! 


डायरिया, वायरल-फीवर, मलेरिया और टाई-फाईड जैसी बीमारी तो इस ऋतू के साक्षात् अभिशाप ही माने गए है ! इस प्रकार हमारे मानव जीवन पर वर्षा ऋतू के मिश्रित प्रभाव पड़ते है और कुछ आधारभूत संरचनाओ को सुधार कर हम इस ऋतू की सुन्दरता को और सार्थक बना सकते है


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